दूरस्थोऽपि न दूरस्थो
यो यस्य मनसि स्थितः।
यो यस्य हृदये नास्ति
समीपस्थोऽपि स दूरतः॥
अर्थात – जो व्यक्ति किसी के हृदय (अतिशय समीप) में रहता है, वह अत्यन्त दूर होने पर भी दूर नहीं होता है। जो हृदय ( समीप )में नहीं रहता है वह अतिशय सन्निकट रहने पर भी दूर ही रहता है ऐसै भगवान भी है प्रत्येक जीव के हृदय मे है पर जीव उन्हे दूर अनुभव करता है संसार वहुत दूर है पर वह समीप अनुभव करता है क्योकि वह संसार को हृदय मे वसाए हुए है
मङ्गलं सुप्रभातम्